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कविता

शैतान

महेश चंद्र पुनेठा


आज भी देखे जा सकते हैं
उसी स्थान पर
हरू के त्रिशूल और चिमटा गढ़े हुए
पूजे जाते हैं श्रद्धा से

बुजुर्ग बताते हैं
ताँबे की खानें हुआ करती थी
इस स्थान पर कभी
दिन भर कठोर चट्टान को तोड़-तोड़कर
ताँबा निकाला करते थे टमटे
रात-रातभर पिघलाकर उसे
पत्थर-मिट्टी से अलग किया करते थे
अपनी कला और श्रम से
गढ़ते सुंदर-सुंदर गगरियाँ, पराद, तौले
और भी जरूरी बर्तन
गाँव-गाँव फेरी लगाकर बेचते उन्हें
ये ही था उनकी आजीविका का एकमात्र साधन
उन दिनों पहाड़ में
खूब बिकते थे ताँबे के बर्तन
स्टीलनैस-स्टील की चमक नहीं पहुँची थी यहाँ

इसी बीच एक शैतान पैदा हुआ यहाँ
कौन था?
कहाँ से आया?
किसी को पता नहीं
पड़ गई इस ताँबे में उसकी नजर
रात में आकर गटक जाता सारा पिघलाया हुआ ताँबा
टमटे देखते रह जाते यह भयानक दृश्य
बहुत परेशान हो चले
उनके पेट पर लात थी यह जबरदस्त
उनका दर्द देखा नहीं गया
हरू से
उसने शैतान का अंत किया
और गाढ़कर अपना त्रिशूल-चिमटा
पता नहीं किस दिशा को चल दिया
तब से लोग हरू को
उसी स्थान पर पूजते आ रहे हैं
उसी तरह गढ़े हैं त्रिशूल-चिमटा

लेकिन शैतान फिर से लौट आया है
रूप बदलकर
राजधानी तक लंबे हैं उसके हाथ
चेहरे से नहीं लगता है वह
बिल्कुल भी शैतान सा
आवाज किसी देवदूत सी

नहीं रहा भले अब ताँबा वहाँ
वह खड़िया खाने लगा है
और आसपास के जंगल भी
पीने लगा है नदी
रेता-बजरी साथ उसके

हरू मंदिर को उसने
बना दिया है भव्य
दूर से ही दिखाई दे जाते हैं
चारों ओर लहराते हुए लाल निशान
कंगूरे पर चमकता पीत कलश
मय त्रिशूल
महिने में एक बार
लग जाता है वहाँ भंडारा
खूब छक कर खा जाते हैं
गाँव के लोग हलवा-पूरी
और गुण गाते हैं उसकी भक्तिभाव के

हरू मंदिर के आसपास भी
गहरी सुरंगें बना चुका है वह
उसकी भूख बढ़ती ही जा रही है
वह दिन दूर नहीं
जब गाँव के गाँव
उसकी पेटी में समा जाएँगे
और पेटी में बैठ लोकतंत्र मुस्कराएगा

तब भी क्या
हरू के त्रिशूल-चिमटा ऐसे ही गढ़े रहेंगे ?
कब तक
कंगूरे के कलश की शोभा बने रहेंगे?
या फिर
हरू के इंतजार में बैठे रहेंगे?

 


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